लोकसभा चुनाव के संदर्भ में अगर राजनीतिक दलों और दोनों बड़े गठबंधन की मनोदशा पर गौर करें तो कुछ बातें बहुत साफ नजर आएंगी। पहली-बीते लोकसभा चुनाव में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाली भाजपा सहमी हुई है और आशंकित भी। वाजिब है। उसके पास पाने के बदले खोने के लिए बहुत कुछ है।
पांच जीती हुई सीटें भाजपा चुनाव मैदान में जाने से पहले हार चुकी है। यह सीटें सहयोगी जदयू को मिलने जा रही है। हां, भाजपा के इस त्याग को रणनीतिक जीत के रूप में भी देखा जा रहा है। कह सकते हैं कि उसने थान हारने के बदले गज हारने का फैसला किया है।
दूसरी-जदयू के हिस्से खोने के लिए कुछ नहीं है। पाने की उम्मीद अधिक है। वह दो सीटों पर जीती थी। बहुत खराब प्रदर्शन हो, उस हालत में भी वह फायदे में रहेगा। वजह ये है कि नीतीश कुमार के रूप में उसके पास एक विश्वसनीय चेहरा है। ठीक ऐसा ही चेहरा और किसी दल के पास नहीं है।
तीसरी-महागठबंधन के पास दलों की संख्या अधिक हो गई है। लेकिन, वोट जुगाड़ करने वाले चेहरे कम ही हैं। ये ऐसे चेहरे हैं जिनके पास अपने दम पर चुनाव लडऩे का तजुर्बा तक नहीं है। लिहाजा यह तय करना मुश्किल है कि वोट बटोरने की उनकी वास्तविक क्षमता कितनी है।
हम या रालोसपा जैसी नवोदित पार्टियां क्रमश: एक और दो चुनाव गठबंधन के नेतृत्व में ही लड़ी हैं। एक विकासशील इंसान पार्टी और दूसरा लोकतांत्रिक जनता दल को पहली बार चुनाव लडऩे का मौका मिलेगा। इसीलिए इनके आधार के बारे में अभी ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है।
जबकि भाजपा, राजद, जदयू, कांग्रेस और लोजपा जैसी पार्टियों को अकेले और गठबंधन के साथ भी चुनाव लडऩे का अनुभव है। इसीलिए इन दलों को अपनी सीमाओं का ज्ञान है। यह ज्ञान सौदेबाजी के समय नजर आता है, जब 30 सीट पर लड़ी भाजपा 17 पर और 38 सीट पर लड़ा जदयू 17 पर लडऩे के लिए राजी हो जाता है।